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निरामय जीवन की चतुःसूत्री

Posted by Hari Om ~ Sunday 17 February 2013



निरामय जीवन की चतुःसूत्री

प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट रचना है मानव। सबको निरोग व स्वस्थ रखना प्रकृति का नैसर्गिक गुण है। स्वस्थ रहना कितना सहज, सरल व स्वाभाविक है, यह आज के माहौल में हम भूल गये हैं। सदवृत्ति तथा सदाचार के छोटे-छोटे नियमों के पालन से तथा स्वास्थ्य की इस चतुःसूत्री को अपनाने से हम सदैव स्वस्थ व दीर्घायुषी जीवन सहज में ही प्राप्त कर सकते हैं और यदि शरीर कभी किसी व्याधि से पीड़ित हो भी जाय तो उससे सहजता से छुटकारा पा सकते हैं। प्राणायाम, सूर्योपासना, भगवन्नाम-जप तथा  ब्रह्मचर्य का पालन – यह निरामय (स्वस्थ) जीवन की गुरुवाची है।
प्राणायामः प्राण अर्थात् जीवनशक्ति और आयाम अर्थात् नियमन। प्राणायाम शब्द का अर्थ है। श्वासोच्छवास की प्रक्रिया का नियमन करना। जिस प्रकार एलोपैथी में बीमारियों का मूल कारण जीवाणु माना गया है, उसी प्रकार प्राण चिकित्सा में निर्बल प्राण को माना गया है। शरीर में रक्त का संचारण प्राणों के द्वारा ही होता है। प्राण निर्बल हो जाने पर शरीर के अंग प्रत्यंग ढीले पड़ जाने के कारण ठीक से कार्य नहीं कर पाते और रक्त संचार मंद पड़ जाता है।
प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है। रक्तसंचार सुव्यवस्थित होने लगता है। कोशिकाओं को पर्याप्त ऊर्जा मिलने से शरीर के सभी प्रमुख अंग-हृदय, मस्तिष्क, गुर्दे, फेफड़े आदि बलवान व कार्यशील हो जाते हैं। रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ़ जाता है। रक्त, नाड़ियाँ तथा मन भी शुद्ध हो जाता है।
पद्धतिः पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ जायें। दोनों नथुनों से पूरा श्वास बाहर निकाल दें। दाहिने हाथ के अँगूठे से दाहिने नथुने को बंद करके नथुने से सुखपूर्वक दीर्घ श्वास लें। अब यथाशक्ति श्वास को रोके रखें। फिर बायें नथुने को अनामिका उँगली से बंद करके श्वास को दाहिने नथुने से धीरे-धीरे छोड़े। इस प्रकार श्वास को पूरा बाहर निकाल दें और फिर दोनों नथुनों को बंद करके श्वास को बाहर ही सुखपूर्वक कुछ देर तक रोके रखें। अब दाहिने नथुने से पुनः श्वास लें और थोड़े समय तक रोककर बायें नथुने से धीरे-धीरे छोड़े। पूरा श्वास बाहर निकल जाने के बाद कुछ समय तक श्वास को बाहर ही रोके रखें। यह एक प्राणायाम पूरा हुआ।
प्राणायाम में श्वास को लेने, अंदर रोकने, छोड़ने और बाहर रोकने के समय का प्रमाण क्रमशः इस प्रकार हैं 1.4-2.2 अर्थात् यदि 5 सेकेंड श्वास लेने में लगायें तो 20 सेकेंड रोकें, 10 सेकेंड उसे छोड़ने में लगायें तथा 10 सेकेंड बाहर रोकें। यह आदर्श अनुपात है। धीरे-धीरे नियमित अभ्यास द्वारा इस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है।
प्राणायाम की संख्या धीरे-धीरे बढ़ायें। एक बार संख्या बढ़ाने के बाद फिर घटानी चाहिए। 10 प्राणायाम करने के बाद फिर 9 करें। त्रिकाल संध्या में (सूर्योदय, सूर्यास्त तथा मध्याह्न के समय) प्राणायाम करने से विशेष लाभ होता है। सुषुप्त शक्तियों को जगाकर जीवनशक्ति के विकास में प्राणायाम का बड़ा महत्व है।

सूर्योपासनाः

हमारी शारीरिक शक्ति की उत्पत्ति, स्थिति तथा वृद्धि सूर्य पर आधारित है। सूर्य की किरणों का रक्त, श्वास व पाचन-संस्थान पर असरकारक प्रभाव पड़ता है। पशु सूर्यकिरणों में बैठकर अपनी बीमारी जल्दी मिटा लेते हैं, जबकि मनुष्य कृत्रिम दवाओं की गुलामी करके अपना स्वास्थ्य और
अधिक बिगाड़ लेता है। यदि वह चाहे तो सूर्य किरण जैसी प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से शीघ्र ही आरोग्यलाभ कर सकता है।

अर्घ्यदानः सूर्यकिरणों में सात रंग होते हैं जो विभिन्न रोगों के उपचार में सहायक हैं। सूर्य को अर्घ्य देते समय जलधारा को पार करती हुई सूर्यकिरणें हमारे सिर से पैरों तक पूरे शरीर पर पड़ती हैं। इससे हमे स्वतः ही सूर्यकिरणयुक्त जल चिकित्सा का लाभ मिल जाता है।

सूर्यस्नानः सूर्योदय क समय कम से कम वस्त्र पहन कर, सूर्य की किरणें नाभि पर पड़ें इस तरह बैठ जायें। फिर आँखें मूँदकर ऐसा संकल्प करें। सूर्य देवता का नीलवर्ण मेरी नाभि में प्रवेश कर रहा है। मेरे शरीर में सूर्य भगवान की तेजोमय शक्ति का संचार हो रहा है। आरोग्यदाता सूर्यनारायण की जीवनपोषक रश्मियों से मेरे रोम-रोम में रोग-प्रतिकारक शक्ति का अतुलित संचार हो रहा है। इससे सर्व रोगों का जो मूल कारण, अग्निमाद्य है, वह दूर होकर रोग समूल नष्ट हो जायेंगे। मौन, उपवास, प्राणायाम, प्रातःकाल 10 मिनट तक सूर्य की किरणों में बैठना और भगवन्नाम जप रोग मिटाने के बेजौड़ साधन हैं।

सूर्यनमस्कारः हमारे ऋषियों ने मंत्र एवं व्यायामसहित सूर्यनमस्कार की एक प्रणाली विकसित की है, जिसमें सूर्योपासना के साथ-साथ आसन की क्रियाएँ भी हो जाती हैं। इसमें कुल 10 आसनों का समावेश है। (इसका विस्तृत वर्णन आश्रम से प्रकाशित पुस्तक बाल संस्कार में उपलब्ध है।)
नियमित सूर्यनमस्कार करने से शरीर हृष्ट पुष्ट व बलवान बनता है। व्यक्तित्व तेजस्वी, ओजस्वी व प्रभावी होता है। प्रतिदिन सूर्योपासना करने वाले का जीवन भी भगवान भास्कर के समान उज्जवल तथा तमोनाशक बनता है।

भगवन्नाम जपः
भगवान जप में सर्व व्याधिविनाशिनी शक्ति है। हरिनाम, रामनाम, ओंकार के उच्चारण से बहुत सारी बीमारियाँ स्वतः ही मिटती हैं। रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है। मंत्रजाप जितना श्रद्धा-विश्वासपूर्वक किया जाता है, लाभ उतना ही अधिक होता है। चिन्ता, अनिद्रा, मानसिक अवसाद (डिप्रेशन), उच्च व निम्न रक्तचाप आदि मानसिक विकारजन्य लक्षणों में मंत्रजाप से शीघ्र ही लाभ दिखायी देता है। मंत्रजाप से मन में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है जिससे आहार-विहार, आचार व विचार सात्त्विक होने लगते हैं। रोगों का मूल हेतु प्रज्ञापराध व असात्म्य इन्द्रियार्थ संयोग (इन्द्रियों का विषयों के साथ अतिमिथ्या अथवा हीन योग) दूर होकर मानव-जीवन संयमी, सदाचारी व स्वस्थ होने लगता है। नियमित मंत्रजाप करने वाले हजारों-हजारों साधकों का यह प्रत्यक्ष अनुभव है।
ब्रह्मचर्यः वैद्यक शास्त्र में ब्रह्मचर्य को परम बल कहा गया है। ब्रह्मचर्यं परं बलम्। वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है। इसके रक्षण से शरीर में एक अदभुत आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे ओज कहते हैं। ब्रह्मचर्य के पालन से चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह व स्फूर्ति आती है। शरीर से वीर्य व्यय यह कोई क्षणिक सुख के लिए प्रकृति की व्यवस्था नहीं है। केवल संतानोत्पत्ति के लिए इसका वास्तविक उपयोग है। काम एक विकार है जो बल बुद्धि तथा आरोग्यता का नाश कर देता है। अत्यधिक वीर्यनाश से शरीर अत्यंत कमजोर हो जाता है, जिससे कई जानलेवा बीमारियाँ शरीर पर बड़ी आसानी से आक्रमण कर देती है। इसीलिए कहा गया हैः
मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्।
बिन्दुनाश (वीर्यनाश) ही मृत्यु है और वीर्यरक्षण ही जीवन है।
ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए आश्रम से प्रकाशित पुस्तक यौवन सुरक्षा (अब दिव्य प्रेरणा प्रकाश) अथवा युवाधन सुरक्षा पाँच बार पढ़ें। आश्रम में उपलब्ध हल्दी बूटी का प्रयोग करें। ॐ अर्यमायै नमः इस ब्रह्मचर्य रक्षक मंत्र का जप करें। सत्संग का श्रवण व्याधि से पीड़ित व्यक्तियों के रोगों का विनाश तथा स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की सुरक्षा होती है।





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