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बाह्य धारणा (त्राटक)

Posted by Hari Om ~ Sunday, 20 January 2013



बाह्य धारणा (त्राटक)

परमात्मा अचल, निर्विकार, अपरिवर्तनशील और एकरस हैं। प्रकृति में गति, विकार, निरंतर परिवर्तन है। मानव उस परमात्मा से अपनी एकता जानकर प्रकृति से पार हो जाये इसलिए परमात्म-स्वरूप के अनुरूप अपने जीवन में दृष्टि व स्थिति लाने का प्रयास करना होगा। प्रकृति के विकारों से अप्रभावित रहने की स्थिति उपलब्ध करनी होगी। इस मूल सिद्धान्त को दृष्टि में रखकर एक प्रभावी प्रयोग बता रहे हैं जिसे 'बाह्य धारणा' कहा जाता है। इसमें किसी बाहरी लक्ष्य पर अपनी दृष्टि को एकाग्र किया जाता है। इस साधना के लिए भगवान की मूर्ति, गुरुमूर्ति, ॐ या स्वास्तिक आदि उपयोगी हैं। शरीर व नेत्र को स्थिर और मन को निःसंकल्प रखने का प्रयास करना चाहिए।

इससे स्थिरता, एकाग्रता व स्मरणशक्ति का विकास होता है। लौकिक कार्यों में सफलता प्राप्त होती है, दृष्टि प्रभावशाली बनती है, सत्यसुख की भावना, शोध तथा सजगता सुलभ हो जाती है। आँखों में पानी आना, अनेकानेक दृश्य दिखना ये इसके प्रारंभिक लक्षण है। उनकी ओर ध्यान न देकर लक्ष्य की ओर एकटक देखते रहना चाहिए। आँख बन्द करने पर भी लक्ष्य स्पष्ट दिखने लगे और खुले नेत्रों से भी उसको जहाँ देखना चाहे, तुरंत देख सके – यही त्राटक की सम्यकता का संकेत है।

नोटः कृपया इस विषय अधिक जानकारी के लिए देखें – आश्रम से प्रकाशित पुस्तक पंचामृत (पृष्ठ 345), शीघ्र ईश्वर प्राप्ति, परम तप।





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