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हरीतकी (हरड़) Myrobalan

Posted by Hari Om ~ Tuesday, 22 January 2013

हरीतकी (हरड़) Myrobalan

भारत में विशेषतः हिमालय में कश्मीर से आसाम तक हरीतकी के वृक्ष पाये जाते हैं। आयुर्वेद ने इसे अमृता, प्राणदा, कायस्था, विजया, मेध्या आदि नामों में गौरावान्वित किया है। हरीतकी एक श्रेष्ठ रसायन द्रव्य है।

इसमें लवण छोड़कर मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त, कषाय ये पाँचों रस पाये जाते हैं। यह लघु, रुक्ष, विपाक में मधुर तथा वीर्य में उष्ण होती है। इन गुणों से यह वात-पित्त-कफ इन तीनों दोषों का नाश करती है।
हरड़(हरीतकी) शोथहर, व्रणशोधक, अग्निदीपक, पाचक, यकृत-उत्तेजक, मल-अनुलोमक, मेध्य, चक्षुष्य और वयःस्थापक है। विशिष्ठ द्रव्यों के साथ मिलाकर विशिष्ठ संस्कार करने से यह विविध रोगों में लाभदायी होती है। पाचन-संस्थान पर इसका कार्य विशेष-रूप से दिखाई देता है।
सेवन-विधिः हरड़ चबाकर खाने से भूख बढ़ती है। पीसकर फाँकने से मल साफ होता है। सेंककर खाने से त्रिदोषों को नष्ट करती है। खाना खाते समय खाने से यह शक्तिवर्धक और पुष्टिकारक है। सर्दी, जुकाम तथा पाचनशक्ति ठीक करने के लिए भोजन करने के बाद इसका सेवन करें।
मात्राः 3 से 4 ग्राम।
यदि आप लम्बी जिंदगी जीना चाहते हैं तो छोटी हरड़ (हर्र) रात को पानी में भिगो दें। पानी इतना ही डालें कि ये सोख लें। प्रातः उनको देशी घी में तलकर काँच के बर्तन में रख लें। 2 माह तक रोज 1-1 हरड़ सुबह शाम 2 माह तक खाते रहें। इससे शरीर हृष्ट-पुष्ट होगा।
मेध्य, इन्द्रियबलकर, चक्षुष्यः हरड़ मेध्य है अर्थात् बुद्धिवर्धक है। नेत्र तथा अन्य इन्द्रियों का बल बढ़ाती है। घी, सुवर्ण, शतावरी, ब्राह्मी आदि अन्य द्रव्य अपने शीत-मधुर गुणों से धातु तथा इन्द्रियों का बल बढ़ाते हैं, जबकि हरड़ विकृत कफ तथा मल का नाश करके, बुद्धि तथा इन्द्रियों का जड़त्व नष्ट करके उन्हें कुशाग्र बनाती है। शरीर में मल-संचय होने पर बुद्धि तथा इन्द्रियाँ बलहीन हो जाती हैं। हरड़ इस संचित मल का शोधन करके धातुशुद्धि करती है। इससे बुद्धि व इन्द्रियाँ निर्मल व समर्थ बन जाती है। इसलिए हरड़ को मेध्या कहा गया है।
हरड़ नेत्रों का बल बढ़ाती है। नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए त्रिफला श्रेष्ठ द्रव्य है। 2 ग्राम त्रिफला चूर्ण घी तथा शहद के विमिश्रण (अर्थात् घी अधिक और शहद कम या शहद अधिक और घी कम) के साथ अथवा त्रिफला घी के साथ लेने से नेत्रों का बल तथा नेत्रज्योति बढ़ती है।
रसायन कार्यः हरड़ साक्षात् धातुओं का पोषण नहीं करती। वह धात्वग्नि बढ़ाती है। धात्वाग्नि बढ़ने से नये उत्पन्न होने वाले रस रक्तादि धातु शुद्ध-प्राकृत बनने लगते हैं। धातुओं में स्थित विकृत कफ तथा मल का पाचन व शोधन करके धातुओं को निर्मल बनाती है। सभी धातुओं व इन्द्रियों का प्रसादन करके यह यौवन की रक्षा करती है, इसलिए इसे कायस्था कहा गया है।
स्थूल व्यक्तियों में केवल मेद धातु का ही अतिरिक्त संचय होने के कारण अन्य धातु क्षीण होने लगते हैं, जिससे बुढ़ापा जल्दी आने लगता है। हरड़ इस विकृत मेद का लेखन व क्षरण (नाश) करके अन्य धातुओं की पुष्टि का मार्ग प्रशस्त कर देती है, जिससे पुनः तारुण्य और ओज की प्राप्ति होती है। लवण रस मांस व शुक्र धातु का नाश करता है जिससे वार्धक्य जल्दी आने लगता है, अतः नमक का उपयोग सावधानीपूर्वक करें। हरड़ में लवण रस न होने से तथा विपाक में मधुर होने से वह तारुण्य की रक्षा करती है। रसायन कर्म के लिए दोष तथा ऋतु के अनुसार विभिन्न अनुपानों के साथ हरड़ का प्रयोग करना चाहिए।
ऋतु अनुसार हरड़ सेवन के लिए अनुपान
वसंत – शहद
ग्रीष्म – गुड़
वर्षा – सैंधव
शरद – शर्करा
हेमंत – सोंठ
शिशिर - पीपर
दोषानुरूप अनुपानः कफ में हरड़ और सैंधव। पित्त में हरड़ और मिश्री। वात में हरड़ घी में भूनकर अथवा मिलाकर दें।
आयुर्वेद के श्रेष्ठ आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार हरड़ चूर्ण घी में भूनकर नियमित रूप से सेवन करने से तथा भोजन में घी का भरपूर उपयोग करने से शरीर बलवान होकर दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
सावधानीः अति श्रम करने वाले, दुर्बल, उष्ण, प्रकृतिवाले एवं गर्भिणी को तथा ग्रीष्म ऋतु, रक्त व पित्तदोष में हरड़ का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
औषधि-प्रयोगः
मंदाग्निः तिक्त रस व उष्णवीर्य होने से यह यकृत को उत्तेजित करती है। पाचक स्त्राव बढ़ाती है। आमाशयस्थ विकृत कफ का नाश करती है। अग्निमांद्य, ग्रहणी (अतिसार), उदरशूल, अफरा आदि रोगों में विशेषतः छोटी हरड़ चबाकर खाने से लाभ होता है।
यह जठराग्नि के साथ-साथ रस रक्तादि सप्तधातुओं की धात्वाग्निओं की भी वृद्धि करती है, जिससे शरीरस्थ आम का पाचन होकर रसरक्तादि सप्तधातु प्राकृतरूप से बनने लगते हैं।
मलावरोधः 3 से 5 ग्राम हरड़ चूर्ण पानी के साथ लेने से मल का पाचन होकर वह शिथिल व द्रवरूप में बाहर निकलता है, जिससे कब्ज का नाश होता है।
ग्रहणी (अतिसार)- हरड़ पानी में उबालकर लेने से मल में से द्रवभाग का शोषण करके बँधे हुए मल को बाहर निकालती है, जिससे दस्त में राहत मिलती है। हरड़ को पानी में उबालकर पीस लें। इसकी 2 ग्राम मात्रा शहद के साथ दिन में 3 बार लेने से अथवा काढ़ा पीने से भी लाभ होता है। इससे आँतों को बल मिलता है, दोषों का पाचन होता है, जठराग्नि बढ़ती है। (आश्रम में उपलब्ध हिंगादि हरड़ चूर्ण का उपयोग भी कर सकते हैं।)
बवासीरः 2 ग्राम हरड़ चूर्ण गुड़ में मिलाकर छाछ के साथ देने से बवासीर के शूल, शोथ आदि लक्षणों में आराम मिलता है।
अम्लपित्तः हरड़ चूर्ण, पीपर व गुड़ समान मात्रा में लेकर मिला लें। इसकी 2-2 ग्राम की गोलियाँ बनाकर 1-1 गोली सुबह-शाम लेने से अथवा 2 ग्राम हरड़ चूर्ण मुनक्का व मिश्री के साथ लेने से कण्ठदाह, तृष्णा, मंदाग्नि आदि अम्लपित्तजन्य लक्षणों से छुटकारा मिलता है।
यकृत-प्लीहा वृद्धिः हरड़ व रोहितक के 50 ग्राम काढ़े में एक चुटकी यवक्षार व 1 ग्राम पीपर चूर्ण मिलाकर लेने से यकृत व प्लीहा सामान्य लगती है।

खाँसी, जुकाम, श्वास व स्वरभेदः हरड़ कफनाशक है और पीपर स्निग्ध, उष्ण-तीक्ष्ण है। अतः 2 भाग हरड़ चूर्ण में 1 भाग पीपर का चूर्ण मिलाकर 2 ग्राम की मात्रा में शहद के साथ 2-3 बार चाटने से कफजन्य खाँसी, जुकाम, स्वरभेद आदि में राहत मिलती है।
कामलाः हरड़ अथवा त्रिफला के काढ़े में शहद मिलाकर देने से पित्त का नाश होता है, यकृत की सूजन दूर होती है। जठराग्नि प्रज्वलित होती है।
प्रमेहः अधिक मात्रा में बार-बार पेशाब आता हो तो हरड़ के काढ़े में हल्दी तथा शहद मिलाकर देने से लाभ होता है।
मूत्रकृच्छ, मूत्राघातः हरड़, गोक्षुर व पाषाणभेद के काढ़े में मधु मिलाकर देने से दाह व शूलयुक्त मूत्र-प्रवृत्ति में आराम मिलता है।
वृषणशोथः हरड़ के काढ़े में गोमूत्र मिलाकर लेने से वृषणशोथ नष्ट होता है।







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