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यकृत चिकित्सा(Liver therapy)

Posted by Hari Om ~ Friday, 15 February 2013


यकृत चिकित्सा(Liver therapy)

यकृत चिकित्सा के लिए अन्य सभी चिकित्सा-पद्धतियों की अपेक्षा आयुर्वेद श्रेष्ठ पद्धति है। आयुर्वेद में इसके सचोट इलाज हैं। यकृत सम्बन्धी किसी भी रोग की चिकित्सा निष्णात वैद्य की देख-रेख में ही करवानी चाहिए।
कई रोगों में यकृत की कार्यक्षमता कम हो जाती है, जिसे बढ़ाने के लिए आयुर्वेदिक औषधियाँ अत्यंत उपयोगी हैं। अतः यकृत को प्रभावित करने वाले किसी भी रोग की यथा योग्य चिकित्सा के साथ-साथ निम्न आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन हितकारी है।
सुबह खाली पेट एक चुटकी (लगभग 0.25 ग्राम) साबुत चावल पानी के साथ निगल जायें।
हल्दी, धनिया एवं ज्वारे का रस 20 से 50 मि.ली. की मात्रा में सुबह-शाम पी सकते हैं।
2 ग्राम रोहितक का चूर्ण एवं 2 ग्राम बड़ी हरड़ का चूर्ण सुबह खाली पेट गोमूत्र के साथ लेना चाहिए।
पुनर्नवामंडूर की 2-2 गोलियाँ (करीब 0.5 ग्राम) सुबह-शाम गोमूत्र के साथ लेनी चाहिए।
संशमनी वटी की दो-दो गोलियाँ सुबह-दोपहर-शाम पानी के साथ लेनी चाहिए।
आरोग्यवर्धिनी वटी की 1-1 गोली सुबह-शाम पानी के साथ लेना चाहिए। ये दवाइयाँ साँई श्री लीलाशाहजी उपचार केन्द्र (सूरत आश्रम) में भी मिल सकेंगी।
हरीत की 3 गोलियाँ रात्रि में गोमूत्र के साथ लें।
विशेषः वज्रासन, पादपश्चिमोत्तानासन, पद्मासन, भुजंगासन जैसे आसन तथा प्राणायाम भी लाभप्रद हैं।
अपथ्यः यकृत के रोगी भारी पदार्थ एवं दही, उड़द की दाल, आलू, भिंडी, मूली, केला, नारियल, बर्फ और उससे निर्मित पदार्थ, तली हुई चीजें, मूँगफली, मिठाई, अचार, खटाई इत्यादि न खायें।
पथ्यः साठी के चावल, मूँग, परमल (मुरमुरे), जौ, गेहूँ, अंगूर, अनार, परवल, लौकी, तुरई, गाय का दूध, गोमूत्र, धनिया, गन्ना आदि जठराग्नि को ध्यान में रखकर नपा तुला ही खाना चाहिए।





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