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सुखमय जीवन की कुंजियाँ

Posted by Hari Om ~ Friday, 1 February 2013

सनातन संस्कृति का महाभारत जैसा ग्रन्थ भी ईश्वरीय ज्ञान के साथ शरीर-स्वास्थ्य की कुंजियाँ धर्मराज युधिष्ठिर को पितामह भीष्म के द्वारा दिये गये उपदेशों के माध्यम से हम तक पहुँचता है। जीवन को सम्पूर्ण रूप से सुखमय बनाने का उन्नत ज्ञान सँजोये रखा है हमारे शास्त्रों नेः
सदाचार से मनुष्य को आयु, लक्ष्मी तथा इस लोक और परलोक में कीर्ति की प्राप्ति होती है। दुराचारी मनुष्य इस संसार में लम्बी आयु नहीं पाता, अतः मनुष्य यदि अपना कल्याण करना चाहता हो तो क्यों न हो, सदाचार उसकी बुरी प्रवृत्तियों को दबा देता है। सदाचार धर्मनिष्ठ तथा सच्चरित्र पुरुषों का लक्षण है।
सदाचार ही कल्याण का जनक और कीर्ति को बढ़ानेवाला है, इसी से आयु की वृद्धि होती है और यही बुरे लक्षणों का नाश करता है। सम्पूर्ण आगमों में सदाचार ही श्रेष्ठ बतलाया गया है। सदाचार से धर्म उत्पन्न होता है और धर्म के प्रभाव से आयु की वृद्धि होती है।
जो मनुष्य धर्म का आचरण करते हैं और लोक कल्याणकारी कार्यों में लगे रहते हैं, उनके दर्शन न हुए हों तो भी केवल नाम सुनकर मानव-समुदाय उनमें प्रेम करने लगता है। जो मनुष्य नास्तिक, क्रियाहीन, गुरु और शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले, धर्म को न जानने वाले, दुराचारी, शीलहीन, धर्म की मर्यादा को भंग करने वाले तथा दूसरे वर्ण की स्त्रियों से संपर्क रखने वाले हैं, वे इस लोक में अल्पायु होते हैं और मरने के बाद नरक में पड़ते हैं। जो सदैव अशुद्ध व चंचल रहता है, नख चबाता है, उसे दीर्घायु नहीं प्राप्त होती। ईर्ष्या करने से, सूर्योदय के समय और दिन में सोने से आयु क्षीण होती है। जो सदाचारी, श्रद्धालु, ईर्ष्यारहित, क्रोधहीन, सत्यवादी, हिंसा न करने वाला, दोषदृष्टि से रहित और कपटशून्य है, उसे दीर्घायु प्राप्त होती है।
प्रतिदिन सूर्योदय से एक घंटा पहले जागकर धर्म और अर्थ के विषय में विचार करे। मौन रहकर दंतधावन करे। दंतधावन किये बिना देव पूजा व संध्या न करे। देवपूजा व संध्या किये बिना गुरु, वृद्ध, धार्मिक, विद्वान पुरुष को छोड़कर दूसरे किसी के पास न जाय। सुबह सोकर उठने के बाद पहले माता-पिता, आचार्य तथा गुरुजनों को प्रणाम करना चाहिए।
सूर्योदय होने तक कभी न सोये, यदि किसी दिन ऐसा हो जाय तो प्रायश्चित करे, गायत्री मंत्र का जप करे, उपवास करे या फलादि पर ही रहे।
स्नानादि से निवृत्त होकर प्रातःकालीन संध्या करे। जो प्रातःकाल की संध्या करके सूर्य के सम्मुख खड़ा होता है, उसे समस्त तीर्थों में स्नान का फल मिलता है और वह सब पापों से छुटकारा पा जाता है।
सूर्योदय के समय ताँबे के लोटे में सूर्य भगवान को जल(अर्घ्य) देना चाहिए। इस समय आँखें बन्द करके भ्रूमध्य में सूर्य की भावना करनी चाहिए। सूर्यास्त के समय भी मौन होकर संध्योपासना करनी चाहिए। संध्योपासना के अंतर्गत शुद्ध व स्वच्छ वातावरण में प्राणायाम व जप किये जाते हैं।
नियमित त्रिकाल संध्या करने वाले को रोजी रोटी के लिए कभी हाथ नहीं फैलाना पड़ता ऐसा शास्त्रवचन है। ऋषिलोग प्रतिदिन संध्योपासना से ही दीर्घजीवी हुए हैं।
वृद्ध पुरुषों के आने पर तरुण पुरुष के प्राण ऊपर की ओर उठने लगते हैं। ऐसी दशा में वह खड़ा होकर स्वागत और प्रणाम करता है तो वे प्राण पुनः पूर्वावस्था में आ जाते हैं।
किसी भी वर्ण के पुरुष को परायी स्त्री से संसर्ग नहीं करना चाहिए। परस्त्री सेवन से मनुष्य की आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। इसके समान आयु को नष्ट करने वाला संसार में दूसरा कोई कार्य नहीं है। स्त्रियों के शरीर में जितने रोमकूप होते हैं उतने ही हजार वर्षों तक व्यभिचारी पुरुषों को नरक में रहना पड़ता है। रजस्वला स्त्री के साथ कभी बातचीत न करे।
अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि को स्त्री-समागम न करे। अपनी पत्नी के साथ भी दिन में तथा ऋतुकाल के अतिरिक्त समय में समागम न करे। इससे आयु की वृद्धि होती है। सभी पर्वों के समय ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है। यदि पत्नी रजस्वला हो तो उसके पास न जाय तथा उसे भी अपने निकट न बुलाये। शास्त्र की अवज्ञा करने से जीवन दुःखमय बनता है।
दूसरों की निंदा, बदनामी और चुगली न करें, औरों को नीचा न दिखाये। निंदा करना अधर्म बताया गया है, इसलिए दूसरों की और अपनी भी निंदा नहीं करनी चाहिए। क्रूरताभरी बात न बोले। जिसके कहने से दूसरों को उद्वेग होता हो, वह रूखाई से भरी हुई बात नरक में ले जाने वाली होती है, उसे कभी मुँह से न निकाले। बाणों से बिंधा हुआ फरसे से काटा हुआ वन पुनः अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचनरूपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव कभी नहीं भरता।
हीनांग(अंधे, काने आदि), अधिकांग(छाँगुर आदि), अनपढ़, निंदित, कुरुप, धनहीन और असत्यवादी मनुष्यों की खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए।
नास्तिकता, वेदों की निंदा, देवताओं के प्रति अनुचित आक्षेप, द्वेष, उद्दण्डता और कठोरता – इन दुर्गुणों का त्याग कर देना चाहिए।
मल-मूत्र त्यागने व रास्ता चलने के बाद तथा स्वाध्याय व भोजन करने से पहले पैर धो लेने चाहिए। भीगे पैर भोजन तो करे, शयन न करे। भीगे पैर भोजन करने वाला मनुष्य लम्बे समय तक जीवन धारण करता है।
परोसे हुए अन्न की निंदा नहीं करनी चाहिए। मौन होकर एकाग्रचित्त से भोजन करना चाहिए। भोजनकाल में यह अन्न पचेगा या नहीं, इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए। भोजन के बाद मन-ही-मन अग्नि का ध्यान करना चाहिए। भोजन में दही नहीं, मट्ठा पीना चाहिए तथा एक हाथ से दाहिने पैर के अँगूठे पर जल छोड़ ले फिर जल से आँख, नाक, कान व नाभि का स्पर्श करे।
पूर्व की ओर मुख करके भोजन करने से दीर्घायु और उत्तर की ओर मुख करके भोजन करने से सत्य की प्राप्ति होती है। भूमि पर बैठकर ही भोजन करे, चलते-फिरते भोजन कभी न करे। किसी दूसरे के साथ एक पात्र में भोजन करना निषिद्ध है।
जिसको रजस्वला स्त्री ने छू दिया हो तथा जिसमें से सार निकाल लिया गया हो, ऐसा अन्न कदापि न खाय। जैसे – तिलों का तेल निकाल कर बनाया हुआ गजक, क्रीम निकाला हुआ दूध, रोगन(तेल) निकाला हुआ बादाम(अमेरिकन बादाम) आदि।
किसी अपवित्र मनुष्य के निकट या सत्पुरुषों के सामने बैठकर भोजन न करे। सावधानी के साथ केवल सवेरे और शाम को ही भोजन करे, बीच में कुछ भी खाना उचित नहीं है। भोजन के समय मौन रहना और  आसन पर बैठना उचित है। निषिद्ध पदार्थ न खाये।
रात्रि के समय खूब डटकर भोजन न करें, दिन में भी उचित मात्रा में सेवन करे। तिल की चिक्की, गजक और तिल के बने पदार्थ भारी होते हैं। इनको पचाने में जीवनशक्ति अधिक खर्च होती है इसलिए इनका सेवन स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं है।
जूठे मुँह पढ़ना-पढ़ाना, शयन करना, मस्तक का स्पर्श करना कदापि उचित नहीं है।
यमराज कहते हैं- '' जो मनुष्य जूठे मुँह उठकर दौड़ता और स्वाध्याय करता है, मैं उसकी आयु नष्ट कर देता हूँ। उसकी संतानों को भी उससे छीन लेता हूँ। जो संध्या आदि अनध्याय के समय भी अध्ययन करता है उसके वैदिक ज्ञान और आयु का नाश हो जाता है।" भोजन करके हाथ-मुँह धोये बिना सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र इन त्रिविध तेजों की कभी दृष्टि नहीं डालनी चाहिए।
मलिन दर्पम में मुँह न देखे। उत्तर व पश्चिम की ओर सिर करके कभी न सोये, पूर्व या दक्षिण दिशा की ओर ही सिर करके सोये।
नास्तिक मनुष्यों के साथ कोई प्रतिज्ञा न करे। आसन को पैर से खींचकर या फटे हुए आसन पर न बैठे। रात्रि में स्नान न करे। स्नान के पश्चात तेल आदि की मालिश न करे। भीगे कपड़े न पहने।
गुरु के साथ कभी हठ नहीं ठानना चाहिए। गुरु प्रतिकूल बर्ताव करते हों तो भी उनके प्रति अच्छा बर्ताव करना ही उचित है। गुरु की निंदा मनुष्यों की आयु नष्ट कर देती है। महात्माओं की निंदा से मनुष्य का अकल्याण होता है।
सिर के बाल पकड़कर खींचना और मस्तक पर प्रहार करना वर्जित है। दोनों हाथ सटाकर उनसे अपना सिर न खुजलाये।
बारंबार मस्तक पर पानी न डाले। सिर पर तेल लगाने के बाद उसी हाथ से दूसरे अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए। दूसरे के पहने हुए कपड़े, जूते आदि न पहने।
शयन, भ्रमण तथा पूजा के लिए अलग-अलग वस्त्र रखें। सोने की माला कभी भी पहनने से अशुद्ध नहीं होती।
संध्याकाल में नींद, स्नान, अध्ययन और भोजन करना निषिद्ध है। पूर्व या उत्तर की मुँह करके हजामत बनवानी चाहिए। इससे आयु की वृद्धि होती है। हजामत बनवाकर बिना नहाय रहना आयु की हानि करने वाला है।
जिसके गोत्र और प्रवर अपने ही समान हो तथा जो नाना के कुल में उत्पन्न हुई हो, जिसके कुल का पता न हो, उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिए। अपने से श्रेष्ठ या समान कुल में विवाह करना चाहिए।
तुम सदा उद्योगी बने रहो, क्योंकि उद्योगी मनुष्य ही सुखी और उन्नतशील होता है। प्रतिदिन पुराण, इतिहास, उपाख्यान तथा महात्माओं के जीवनचरित्र का श्रवण करना चाहिए। इन सब बातों का पालन करने से मनुष्य दीर्घजीवी होता है।
पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने सब वर्ण के लोगों पर दया करके यह उपदेश दिया था। यह यश, आयु और स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला तथा परम कल्याण का आधार है।
(महाभारत, अनुशासन पर्व से संकलित)










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