स्वरोदय विज्ञान (भाग-2)
स्वरोदय विज्ञान (भाग-2)
स्वरों के प्रवाह की लम्बाई के विषय में थोड़ी और बातें बता देना यहाँ आवश्यक है और वह यह कि हमारे कार्यों की विभिन्नता के अनुसार इनकी लम्बाई या गति प्रभावित होती है। जैसे गाते समय 12 अंगुल, खाना खाते समय 16 अंगुल, भूख लगने पर 20 अंगुल, सामान्य गति से चलते समय 18 अंगुल, सोते समय 27 अंगुल से 30 अंगुल तक, मैथुन करते समय 27 से 36 अंगुल और तेज चलते समय या शारीरिक व्यायाम करते समय इससे भी अधिक हो सकती है। यदि बाहर निकलने वाली साँस की लम्बाई नौ इंच से कम की जाए तो जीवन दीर्घ होता है और यदि इसकी लम्बाई बढ़ती है तो आन्तरिक प्राण दुर्बल होता है जिससे आयु घटती है। शास्त्र यहाँ तक कहते हैं कि बाह्य श्वास की लम्बाई यदि साधक पर्याप्त मात्रा में कम कर दे तो उसे भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती है और यदि कुछ और कम कर ले तो वह हवा में उड़ सकता है।
अब थोड़ी सी चर्चा तत्वों और नक्षत्रों के सम्बन्ध पर आवश्यक है। यद्यपि इस सम्बन्ध में स्वामी राम मौन हैं। इसका कारण हो सकता है स्थान का अभाव क्योंकि अपनी पुस्तक में उन्होंने केवल एक अध्याय इसके लिए दिया है। फिर भी पाठकों की जानकारी के लिए शिव स्वरोदय के आधार पर यहाँ तत्वों और नक्षत्रों के सम्बन्ध नीचे दिये जा रहे हैं। पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध रोहिणी, अनुराधा, ज्येष्ठा, उत्तराषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा और अभिजित से, जल तत्व का आर्द्रा, श्लेषा, मूल, पूर्वाषाढ़, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद और रेवती से, अग्नि तत्व का भरणी, कृत्तिका, पुष्य, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, स्वाती और पूर्वा भाद्रपद तथा वायु तत्व का अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा और विशाखा से है।
इस विज्ञान पर आगे चर्चा के पहले शरीर में प्राणिक ऊर्जा के प्रवाह की दिशा की जानकारी आवश्यक है। यौगिक विज्ञान के अनुसार मध्य रात्रि से मध्याह्न तक प्राण नसों में प्रवाहित होता है, अर्थात् इस अवधि में प्राणिक ऊर्जा, सर्वाधिक सक्रिय होती है और मध्याह्न से मध्य रात्रि तक प्राण का प्रवाह शिराओं में होता है। मध्याह्न और मध्य रात्रि में प्राण का प्रवाह दोनों नाड़ी तंत्रों में समान होता है। इसी प्रकार सूर्यास्त के समय प्राण ऊर्जा का प्रवाह शिराओं में और सूर्योदय के समय मेरूदण्ड में सबसे अधिक होता है। इसीलिए शास्त्रों में ये चार संध्याएँ कहीं गयी हैं जो आध्यात्मिक उपासना के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गयी हैं। यदि व्यक्ति पूर्णतया स्वस्थ है तो उक्त क्रम से नाड़ी तंत्रों में प्राण का प्रवाह संतुलित रहता है अन्यथा हमारा शरीर बीमारियों को आमंत्रित करने के लिये तैयार रहता है। यदि इडा नाड़ी अपने नियमानुसार प्रवाहित होती है तो चयापचय जनित विष शरीर से उत्सर्जित होता रहता है, जबकि पिंगला अपने क्रम से प्रवाहित होकर शरीर को शक्ति प्रदान करती है। योगियों ने देखा है और पाया है कि यदि साँस किसी एक नासिका से 24 घंटें तक चलती रहे तो यह शरीर में किसी बीमारी के होने का संकेत है। यदि साँस उससे भी लम्बे समय तक एक ही नासिका में प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि शरीर में किसी गम्भीर बीमारी ने आसन जमा लिया है और यदि यह क्रिया दो से तीन दिन तक चलती रहे तो निस्संदेह शीघ्र ही शरीर किसी गंभीरतम बीमारी से ग्रस्त होने वाला है। ऐसी अवस्था में उस नासिका से साँस बदल कर दूसरी नासिका से तब तक प्रवाहित किया जाना चाहिए जब तक प्रात:काल के समय स्वर अपने उचित क्रम में प्रवाहित न होने लगे। इससे होने वाली बीमारी की गंभीरता कम हो जाती है और व्यक्ति शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करता है।
स्वरोदय विज्ञान के अनुसार स्वरों के प्रवाह की तिथियाँ, अवधि आदि का जो विवरण ऊपर दिया गया है वह केवल स्वस्थ शरीर होने पर ही सम्भव है। यदि इसमें विपर्यय हो अर्थात् शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया को सूर्योदय के समय बाएँ स्वर के स्थान पर दाहिना स्वर चले तो समझना चाहिए कि शरीर में ताप का संतुलन बिगड़ गया है और यदि कृष्ण पक्ष में उक्त तिथियों को इड़ा नाड़ी चले अर्थात् बायीं नासिका से स्वास प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि शरीर का शीतलीकरण तंत्र असंतुलित हो गया है। स्वासों में उत्पन्न यह विपर्यय बुखार या सर्दी-खाँसी से ग्रस्त होने का संकेत देता है। इसके अतिक्ति यह असंतुलन उसमें निराशा और चिड़चिड़ापन को जन्म देता है। यदि यह क्रम तीन पखवारे तक बना रहे तो व्यक्ति गंभीर बीमारी का शिकार बनेगा।
अगर किसी को बुखार आ जाये या ऐसा लगे कि बुखार आने वाला है, तो उसे अपने स्वर की जाँच करके मालूम करना चाहिए कि साँस किस नासिका से प्रवाहित हो रही हैं। जिस नासिका से साँस चल रही हो उसे तुरन्त बन्द कर दूसरी नासिका से साँस तब तक चलायी जाये जब तक बुखार उतर न जाये या व्यक्ति सामान्य अनुभव न करने लगे। इस प्रकार स्वरों के माध्यम से बीमारियों की चिकित्सा उनके उग्र होने के पहले ही की जा सकती हैं।
स्वरोदय विज्ञान की जानकारी से हम दैनिक जीवन में काफी लाभान्वित हो सकते हैं। इसके लिए स्वरोदय विज्ञान के अनुसार हमें विभिन्न कार्य किस स्वर के प्रवाह काल में करना चाहिए यह जानना बहुत आवश्यक है। स्वर विशेष के प्रवाह काल में निर्धारित कार्य करने से हमारा स्वास्थ्य ठीक रहेगा और साथ ही हमें कार्य विशेष में सफलता भी मिलेगी। इसके लिए सबसे पहले हम लेते हैं सूर्य नाड़ी अर्थात् पिंगला को।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि सूर्य नाड़ी अपने प्रवाह काल में हमें शक्ति प्रदान करती है इसलिए जब साँस दाहिनी नासिका से प्रवाहित हो उस समय कठिन कार्य करना चाहिए। इसमें गूढ़ और कठिन विद्याओं का अध्ययन, शिकार करना, वाहनों की सवारी, फसल काटना, कसरत करना, तैरना आदि सम्मिलित हैं। पिंगला के प्रवाह में जठराग्नि प्रबल होती है। इसलिए जब दाहिनी नासिका से स्वर चले तो भोजन करना चाहिए और भोजनोपरान्त कम से कम दस से पन्द्रह मिनट तक बाँई करवट लेटना चाहिए, ताकि सूर्य नाड़ी प्रवाहित हो। शौच और शयन पिंगला के प्रवाह काल में स्वास्थ्यप्रद होता है। वैसे स्वरोदय विज्ञान के अनुसार यात्रा के लिए कहा गया है कि जो स्वर चल रहा हो वही पैर घर से पहले निकालकर यात्रा की जाये तो वह निर्विघ्न पूरी होती है। किन्तु दाहिना स्वर चले तो दक्षिण और पश्चिम दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। वैसे लम्बी दूरी की यात्रा पिंगला नाड़ी के चलने पर शुरू नहीं करनी चाहिए। स्त्री समागम आदि के लिए पिंगला नाड़ी का चयन करना चाहिए। कुल मिलाकर संक्षेप में यह कहना है कि अधिक श्रमसाध्य अस्थायी कार्य पिंगला नाड़ी के प्रवाह काल में प्रारम्भ करना चाहिए।
जब इडा नाड़ी चले तो सभी शुभ एवं स्थायी कार्य प्रारम्भ करने चाहिए। जैसे लम्बी यात्रा, गृह निर्माण, नयी विद्याओं का अध्ययन, बीज वपन, सामान एकत्र करना, जनहित का कार्य, चिकित्सा कराना आदि। इडा नाड़ी के प्रवाहकाल में लम्बी यात्रा के प्रारम्भ करने का उल्लेख किया गया है। लेकिन उत्तर और पूर्व दिशा की यात्रा का प्रारम्भ करना वर्जित है। इसके अतिरिक्त जल पीना, लघुशंका करना, परोपकार, श्रेष्ठ एवं वरिष्ठ व्यक्तियों से सम्पर्क, गुरू दर्शन, मंत्र-साधना, पुरूष समागम आदि कार्य के लिए इडा नाड़ी का प्रवाह काल चुनना चाहिए। वैसे, स्वरोदय विज्ञान के अनुसार भोजन के लिए पिंगला नाड़ी सर्वोत्तम कहीं गयी है, लेकिन अधिक मसालेदार, वसायुक्त नमकीन या खट्टे भोजन के लिए इडा नाड़ी का प्रवाह काल उत्तम माना गया है, क्योंकि यह शरीर में चयापचय से उत्पन्न विष को उत्सर्जित करने में सक्षम है।
सुषुम्ना नाड़ी का प्रवाह काल आध्यात्मिक साधना अर्थात् ध्यान आदि के लिए सर्वोत्तम माना गया है। इसके अतिरिक्त यदि कोई अन्य कार्य इस काल में प्रारम्भ करते हैं तो उसमें सफलता नहीं मिलेगी। यदि अभ्यास द्वारा ऐसा कुछ किया जा सके जिससे सुषुम्ना नाड़ी का प्रवाह-काल बढ़ सके और उस समय आध्यात्मिक साधना की जाये, विशेषकर उस समय आकाश तत्व का उदय हो (यह एक विरल संयोग है), तो साधक को दुर्लभ और विस्मयकारी अनुभव होंगे।
भौतिक उन्नति या दीर्घकालिक सुख से सम्बन्धित कार्य या स्थायी शान्तिप्रद कार्यों में प्रवृत्त होते समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उपयुक्त स्वर में पृथ्वी तत्व का उदय हो। अन्यथा अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेगा। शास्त्रों का कथन है कि पृथ्वी तत्व की प्रधानता के साथ हमारा मन भौतिक सुख के कार्यों के प्रति अधिक आकर्षित होता है। किसी भी स्वर में जल तत्व के उदय के समय किया गया कार्य तत्काल फल देने वाला होता है, भले ही फल अपेक्षाकृत कम हो। जल तत्व की प्रधानता होने पर परिणाम जल की तरह चंचल और उतार-चढ़ाव से भरा होता है। इसलिए इस समय ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिसमें अधिक भाग-दौड़ करना पड़े। अग्नि तत्व का धर्म दाहकता है। इसलिए इसके उदयकाल में कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से बचना चाहिए क्योंकि असफलता के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आयेगा। यहाँ तक कि इस समय किसी बात पर अपनी राय भी नहीं देनी चाहिए, अन्यथा अप्रत्याशित कठिनाई में फॅंसने की नौबत भी आ सकती है। धन-सम्पत्ति से संबंधित दुश्चिन्ताएं, परेशानियाँ, वस्तुओं का खोना आदि घटनाएँ अग्नितत्व के उदयकाल में ही सबसे अधिक होती हैं। वायु तो सर्वाधिक चंचल है। अतएव इसके उदयकाल में किया गया कार्य कभी भी सफल नहीं हो सकता। स्वामी सत्यानन्द जी ने अपनी पुस्तक 'स्वर-योग' में एक अद्भुत उदाहरण दिया है और वह हमें वायु तत्व के समय कार्य का चुनाव करने में सहायक हो सकता है। उन्होंने लिखा है कि यदि भीड़-भाड़ वाले प्लेटफार्म पर छूटती गाड़ी पकड़ने के लिए झपटते समय और वायु तत्व का उदय हो तो आप ट्रेन पकड़ने में सफल हो सकते हैं। आकाश तत्व के उदय काल में ध्यान करने के अलावा कोई भी कार्य सफल नहीं होगा, यह ध्यान देने योग्य बात है।
संक्षेप में, यह ध्यान देने की बात है कि इडा और पिंगला स्वर में पृथ्वी तत्व और जल तत्व का उदयकाल कार्य के स्वभाव के अनुकूल स्वर का चुनाव सदा सुखद होगा। इडा स्वर में अग्नि तत्व और वायु तत्व का उदयकाल अत्यन्त सामान्य फल देने वाला तथा पिंगला में विनाशकारी होता हैं। आकाश तत्व का उदय काल केवल ध्यान आदि कार्यों में सुखद फलदाता है।
'शिव स्वरोदय' का कथन है कि दिन में पृथ्वी तत्व और रात में जल तत्व का उदयकाल सर्वोत्तम होता है। इससे मनुष्य स्वस्थ रहता है और सफलता की संभावना सर्वाधिक होती है।
आवश्यकतानुसार स्वर को बदलने के कुछ सरल तरीके नीचे दिए जा रहे हैं।:-
(क) जिस स्वर को चलाना हो उसके उलटे करवट सिर के नीचे हाथ रखकर लेटने से स्वर बदल जाता है, अर्थात् यदि दाहिनी नासिका से स्वर प्रवाहित करना हो तो बायीं करवट थोड़ी देर तक लेटने से पिंगला नाड़ी चलने लगेगी। वैसे ही, दाहिनी करवट लेटने से इडा नाड़ी चलने लगती है।
(ख) जिस नासिका से साँस प्रवाहित करना चाहते हैं एक नाक बंद कर उस नाक से दस-पन्द्रह बार साँस दबाव के साथ धीरे-धीरे छोड़े और लें तो स्वर बदल जाता है।
(ग) फर्श पर बैठकर एक पैर मोड़कर घुटने को बगल में थोड़ी देर तक दबाए रहें और दूसरा फर्श पर सीधा रखें तो थोड़ी देर में जो पैर सीधा है उस नासिका से साँस चलने लगेगी।
(घ) फर्श पर बैठकर एक हाथ जमीन पर रखें और उसी ओर के कंधें को दीवार से लगाकर थोड़ी देर तक दबाए रखने से स्वर बदल जाता है।
(ड.) लम्बे समय तक यदि किसी एक स्वर को चलाने की आवश्यकता पड़े तो उक्त तरीकों से स्वर बदल कर शुध्द रूई की छोटी गोली बनाकर साफ कपड़े से लपेट कर सिली हुई गुलिका द्वारा एक नाक को बन्द कर देना चाहिए।
जिस प्रकार विभिन्न कार्यों का सम्पादन करने के लिए स्वर बदलने की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही तत्वों को बदलने की भी आवश्यकता भी पड़ती है। स्वरोदय विज्ञान के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति में एक स्वर की एक घंटें की अवधि के दौरान सर्वप्रथम वायु तत्व आठ मिनट तक प्रवाहित होता है, जिसकी लम्बाई नासिका पुट से आठ अंगुल (6 इंच) मानी गयी है। इसके बाद अग्नि तत्व बारह मिनट तक प्रवाहित होता है जिसकी लम्बाई चार अंगुल या 3 इंच तक होती है। तीसरे क्रम में पृथ्वी तत्व 20 मिनट तक प्रवाहित होता है और इसकी लम्बाई बारह अंगुल या नौ इंच तक होती है। इसका विवरण इसके पहले दिया जा चुका है। यहाँ संदर्भ के लिए इसलिए लिया गया है ताकि यह समझा जा सके कि तत्वों के प्रवाह को बदलने के उनकी लम्बाई का ज्ञान और अभ्यास होना आवश्यक है और यदि हम स्वर की लम्बाई को तत्वों के अनुसार कर सकें तो स्वर में वह तत्व प्रवाहित होने लगता है।
स्वरोदय विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म एवं जटिल विज्ञान है। इसका अभ्यास इस विज्ञान के सुविज्ञ गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। क्योंकि इसके अभ्यास द्वारा अत्यन्त अप्रत्याशित और अलौकिक अनुभव होते हैं, जो हमारे मानसिक संतुलन को बिगाड़ सकते है। इस निबन्ध का उद्देश्य मात्र स्वरोदय विज्ञान से परिचय कराना है और साथ ही यह बताना कि अपने दैनिक जीवन में, जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, इसकी सहायता निरापद ढंग से कैसे ली जा सकती है अर्थात् जिसके लिए इस विज्ञान के गहन साधना की आवश्यकता नहीं है।
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